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“भारतीय समाज में काले और गोरे की मानसिकता”भारतीय समाज में काले और गोरे की मानसिकता
भारत में ‘काले और गोरे’ का मुद्दा केवल त्वचा के रंग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज की मानसिकता, संस्कृति और इतिहास से गहराई से जुड़ा हुआ है। रंगभेद की यह मानसिकता औपनिवेशिक काल से पहले भी विद्यमान थी, लेकिन ब्रिटिश शासन ने इसे और गहरा किया। आज, यह सोच भारतीय समाज में अलग-अलग रूपों में बनी हुई है, जिससे सामाजिक भेदभाव और आत्मसम्मान की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। बच्चों के मन में यह धारणा बचपन से ही विकसित हो जाती है कि गोरी त्वचा सुंदरता और सफलता का प्रतीक है, जबकि गहरी त्वचा को कमतर माना जाता है। ऐसे में विद्यालयों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि वे बच्चों की सोच और दृष्टिकोण को आकार देने वाले प्रमुख संस्थान हैं।

विद्यालय न केवल शिक्षा प्रदान करते हैं, बल्कि समाज में बदलाव लाने का एक प्रमुख माध्यम भी होते हैं। अगर विद्यालय सही दिशा में पहल करें, तो वे इस मानसिकता को खत्म करने और बच्चों को वैश्विक स्तर पर हो रहे रंगभेद से निपटने के लिए तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

इतिहास की जड़ें: कहाँ से आई यह मानसिकता?
प्राचीन भारतीय ग्रंथ और वर्ण व्यवस्था: भारत में रंग का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है। ऋग्वेद में ‘असुर’ और ‘सुर’ की तुलना, जहाँ ‘असुर’ को अंधकार (काला) से जोड़ा गया और ‘सुर’ को प्रकाश (गोरा) से, यह दर्शाता है कि गोरापन शुभता और श्रेष्ठता का प्रतीक माना गया।

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रभाव: ब्रिटिश शासन के दौरान ‘गोरों’ को श्रेष्ठ और ‘काले’ लोगों को निम्न समझने की मानसिकता गहरी हो गई। अंग्रेजों ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए ‘गोरे बनाम काले’ का भेदभाव समाज में फैलाया। सरकारी नौकरियों और उच्च पदों पर केवल गोरे या हल्के रंग के भारतीयों को प्राथमिकता दी गई, जिससे यह सोच और मजबूत हुई।

फिल्में, विज्ञापन और सौंदर्य मानक: भारतीय सिनेमा और विज्ञापन उद्योग ने इस मानसिकता को और मजबूत किया। 90 के दशक तक, नायकों और नायिकाओं को गोरी त्वचा वाला दिखाया जाता था, जबकि खलनायक अक्सर गहरे रंग के होते थे। फेयरनेस क्रीम का प्रचार यह दर्शाता था कि गोरी त्वचा सफलता, सुंदरता और आत्मविश्वास का प्रतीक है।

समकालीन समाज में इस मानसिकता की स्थिति
विवाह और रिश्तों में रंगभेद: भारतीय विवाह व्यवस्था में अब भी गोरी त्वचा को प्राथमिकता दी जाती है। कई वैवाहिक विज्ञापनों में ‘गोरी, सुंदर, संस्कारी लड़की’ की माँग होती है। गहरे रंग की लड़कियों को कम आकर्षक माना जाता है, जिससे उनके आत्मसम्मान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

नौकरी और पेशेवर जीवन: कॉर्पोरेट सेक्टर में भी यह मानसिकता देखने को मिलती है। हल्के रंग के लोगों को अधिक प्रोफेशनल और आकर्षक माना जाता है, जबकि गहरे रंग के लोगों को कम प्रभावशाली समझा जाता है।

आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य: इस मानसिकता के कारण कई लोगों में हीन भावना पैदा हो जाती है। विशेष रूप से महिलाओं पर इसका अधिक प्रभाव पड़ता है, जो खुद को सामाजिक रूप से कमतर महसूस करने लगती हैं।

विद्यालयों की भूमिका: कैसे बदल सकते हैं मानसिकता?
1. समानता और समावेशन पर आधारित पाठ्यक्रम
विद्यालयों में ऐसे पाठ्यक्रम को शामिल किया जाना चाहिए, जो विभिन्न रंगों, संस्कृतियों और नस्लों की समानता को महत्व दें। इतिहास और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में ऐसे उदाहरण दिए जाएँ, जो दिखाएँ कि किसी व्यक्ति की सफलता का रंग से कोई संबंध नहीं होता।

2. शिक्षकों का योगदान
शिक्षकों को चाहिए कि वे कक्षा में बच्चों के बीच रंग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न होने दें। वे बच्चों को यह सिखाएँ कि सुंदरता केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि आंतरिक गुणों से भी जुड़ी होती है।

3. कला, साहित्य और रंगमंच के माध्यम से जागरूकता
विद्यालयों में नाटक, कविता लेखन, चित्रकला और अन्य रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को यह सिखाया जा सकता है कि हर रंग की अपनी अनूठी सुंदरता होती है। उन्हें विविध रंगों और संस्कृतियों से परिचित कराने के लिए विभिन्न देशों की कहानियों और प्रेरणादायक व्यक्तित्वों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।

4. फेयरनेस क्रीम और सौंदर्य मानकों पर खुली चर्चा
विद्यालयों में बच्चों के साथ यह चर्चा होनी चाहिए कि समाज में गोरी त्वचा को लेकर जो धारणाएँ बनाई गई हैं, वे किस प्रकार गलत और भ्रामक हैं। फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों में जो संदेश दिया जाता है, उस पर भी बच्चों को सोचने और सवाल करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

5. अंतरराष्ट्रीय जागरूकता कार्यक्रम
बच्चों को केवल भारतीय समाज में ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर हो रहे रंगभेद के बारे में भी जागरूक करना जरूरी है। उन्हें बताया जाए कि अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका में भी रंगभेद की ऐतिहासिक और वर्तमान स्थिति क्या है और वहाँ इसे समाप्त करने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं।

बच्चों को वैश्विक स्तर पर रंगभेद से निपटने के उपाय
1. आत्मसम्मान और आत्मविश्वास बढ़ाना
बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि उनकी पहचान उनके रंग से नहीं, बल्कि उनके कौशल और व्यक्तित्व से बनती है। उन्हें अपनी क्षमताओं पर गर्व करना और आत्मविश्वासी बनना सिखाया जाए।

2. सकारात्मक रोल मॉडल से प्रेरणा लेना
नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और रोजा पार्क्स जैसे नेताओं की कहानियाँ बच्चों को बताई जानी चाहिए, जिन्होंने रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी और समानता की वकालत की।

3. सोशल मीडिया और विज्ञापन की आलोचनात्मक समझ
आज के समय में बच्चे सोशल मीडिया और विज्ञापन से प्रभावित होते हैं। विद्यालयों में उन्हें यह सिखाया जाना चाहिए कि वे विज्ञापनों और फिल्मों में दिखाए जा रहे सौंदर्य मानकों पर सवाल करें और उनके प्रभाव को समझें।

4. अंतरराष्ट्रीय मित्रता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान
विद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय छात्र विनिमय कार्यक्रम, विदेशी भाषाओं की शिक्षा और विभिन्न संस्कृतियों के त्योहारों का आयोजन करके बच्चों को वैश्विक दृष्टिकोण दिया जा सकता है। इससे वे समझेंगे कि हर रंग, हर संस्कृति की अपनी अलग सुंदरता और महत्व होता है।

5. रंगभेद के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाना
बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि अगर वे अपने आसपास या ऑनलाइन किसी प्रकार का रंगभेदी भेदभाव देखें, तो वे इसके खिलाफ खड़े हों। उन्हें बोलने, संवाद करने और सही मंच पर अपनी बात रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यह मानसिकता कहाँ जा रही है?
हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में इस सोच में बदलाव आने लगा है। ‘Dark is Beautiful’ जैसे अभियानों और सोशल मीडिया पर बढ़ती जागरूकता के कारण अब लोग रंगभेद के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। बॉलीवुड और फैशन इंडस्ट्री में भी अब गहरे रंग के अभिनेताओं और मॉडलों को स्वीकार किया जाने लगा है। लेकिन अभी भी समाज में इस मानसिकता को पूरी तरह खत्म होने में समय लगेगा। असली बदलाव तब आएगा जब लोग अपने बच्चों को यह सिखाएँगे कि सुंदरता केवल गोरे रंग तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मविश्वास और व्यक्तित्व में निहित होती है।

भारतीय समाज में काले और गोरे की मानसिकता एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत है, जो अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। लेकिन धीरे-धीरे समाज में जागरूकता बढ़ रही है, और यह मानसिकता बदलने की राह पर है। इसके लिए हमें अपनी सोच को बदलना होगा और यह समझना होगा कि व्यक्ति का मूल्य उसकी त्वचा के रंग से नहीं, बल्कि उसके कर्मों और व्यक्तित्व से तय होता है।

विद्यालय केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि समाज को सुधारने और नई पीढ़ी को सही दिशा में ले जाने का भी केंद्र हैं। अगर विद्यालयों में बच्चों को रंगभेद के बारे में सही शिक्षा दी जाए और उन्हें आत्मसम्मान तथा समानता का महत्व समझाया जाए, तो समाज में इस मानसिकता को बदला जा सकता है। रंग कोई सीमा नहीं, बल्कि विविधता और सौंदर्य का प्रतीक है। जब बच्चे यह समझेंगे कि उनकी पहचान उनके रंग से नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व और कर्मों से बनती है, तभी समाज में असली बदलाव आएगा।